तू नहीं है तो तिरे हमनाम से रिश्ता रक्खा हम ने यूँ भी दिल-ए-नाकाम को ज़िंदा रक्खा वो मरी जान का दुश्मन कि सर-ए-नहर-ए-विसाल सब को सैराब किया बस मुझे प्यासा रक्खा मेरे मौला तिरी मंतिक़ भी अजब मंतिक़ है होंट पे प्यास रखी आँख में दरिया रक्खा सब के हाथों की लकीरों में मुक़द्दर रख के रखने वाले ने मिरे हाथ पे सहरा रक्खा सब के सब लूट रहे थे तिरी दौलत रानी मैं ने तो सिर्फ़ तिरे शहर का नक़्शा रक्खा जिस बुलंदी पे 'रज़ा' मैं ने सजाए तम्ग़े उस बुलंदी पे ही टूटा हुआ कासा रक्खा