तू ने क्या क्या न ऐ ज़िंदगी दश्त ओ दर में फिराया मुझे अब तो अपने दर-ओ-बाम भी जानते हैं पराया मुझे और भी कुछ भड़कने लगा मेरे सीने का आतिश-कदा रास तुझ बिन न आया कभी सब्ज़ पेड़ों का साया मुझे इन नई कोंपलों से मिरा क्या कोई भी तअ'ल्लुक़ न था शाख़ से तोड़ कर ऐ सबा ख़ाक में क्यूँ मिलाया मुझे दर्द का दीप जलता रहा दिल का सोना पिघलता रहा एक डूबे हुए चाँद ने रात भर ख़ूँ रुलाया मुझे अब मिरे रास्ते में कहीं ख़ौफ़-ए-सहरा भी हाइल नहीं ख़ुश्क पत्ते ने आवारगी का क़रीना सिखाया मुझे मुद्दतों रू-ए-गुल की झलक को तरसता रहा मैं 'शकेब' अब जो आई बहार उस ने सेहन-ए-चमन में न पाया मुझे