वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था मगर वो फूल सा चेहरा नज़र न आता था मैं लौट आया हूँ ख़ामोशियों के सहरा से वहाँ भी तेरी सदा का ग़ुबार फैला था शब-ए-सफ़र थी क़बा तीरगी की पहने हुए कहीं कहीं पे कोई रौशनी का धब्बा था ये आड़ी-तिरछी लकीरें बना गया है कौन मैं क्या कहूँ मिरे दिल का वरक़ तो सादा था मैं ख़ाक-दाँ से निकल कर भी क्या हुआ आज़ाद हर इक तरफ़ से मुझे आसमाँ ने घेरा था इधर से बार-हा गुज़रा मगर ख़बर न हुई कि ज़ेर-ए-संग ख़ुनुक पानियों का चश्मा था वो उस का अक्स-ए-बदन था कि चाँदनी का कँवल वो नीली झील थी या आसमाँ का टुकड़ा था मैं साहिलों में उतर कर 'शकेब' क्या लेता अज़ल से नाम मिरा पानियों पे लिक्खा था