तू ने नज़र से प्यास की देखा भी है कहीं गर्द-ए-जबीन-ए-दश्त में दरिया भी है कहीं फिरता रहा हूँ जिस के तआ'क़ुब में उम्र-भर क्या नक़्श उस ख़याल ने छोड़ा भी है कहीं या सब ही मेरी तरह के आवारा-गर्द थे दिल में कोई क़रार से बैठा भी है कहीं हम भी अजब थे ग़ारों में उतरे ये देखने बच कर निकलने का कोई रस्ता भी है कहीं कुछ देखते कि ख़ाक में हैं दफ़्न ख़्वाब क्या ये गर्द-बाद लम्हे को ठहरा भी है कहीं फूलों की सम्त हाथ बढ़ाओ ये सोच कर अफ़ई सियाह शाख़ से लिपटा भी है कहीं सारी सदाएँ ग़ैब से आती नहीं 'शफ़क़' कोई ज़रूर दश्त में बैठा भी है कहीं