तू ने सीने को जब तक ख़लिश दी न थी तू ने जज़्बों को जब तक उभारा न था मैं वो दरिया था जिस में कि लहरें न थीं मैं वो क़ुल्ज़ुम था जिस में कि धारा न था तेरे आगे न यारान-ए-ख़ुद-सर झुके तेरी चौखट से भागे तो दर दर झुके उस जगह दिल झुके उस जगह सर झुके बंदगी के सिवा कोई चारा न था अश्क मोती न थे बह गए बह गए हँसते हँसते ये तुम आज क्या कह गए याद कर के वो दिन हम भी चुप रह गए जब इन आँखों में आँसू गवारा न था साज़ फ़रियाद के दिल ने छेड़े न थे हिज्र और वस्ल के ये बखेड़े न थे हम ने दामन के बख़िये उधेड़े न थे तुम ने ज़ुल्फ़ों को अपनी सँवारा न था तुझ में दरिया कोई किस सहारे चले मैं जो पच्छिम तो पूरब को धारे चले मेरी कश्ती किनारे किनारे चले तेरी मौजों को ये भी गवारा न था देख परवानों के रक़्स-ए-बेताब को शम्अ आने न दे आँख में ख़्वाब को एक झपकी सी आई थी महताब को आँख खोली तो कोई सितारा न था एक तन्नूर से शोले उट्ठा किए आग जलती रही लोग तापा किए दूर बैठे वो पहलू बचाया किए जिन की क़िस्मत में कोई शरारा न था दोनों अफ़्साना-ख़्वाँ गिर्द महमिल के थे क़ैस सहरा का था ख़िज़्र मंज़िल के थे 'मज़हरी' भी ग़ुलाम अपने ही दिल के थे इन दिवानों में कोई तुम्हारा न था