तुझ से बिछड़ के सम्त-ए-सफ़र भूलने लगे फिर यूँ हुआ हम अपना ही घर भूलने लगे क़ुर्बत के मौसमों की अदा याद रह गई गुज़री रफ़ाक़तों का असर भूलने लगे अज़्बर हैं यूँ तो कूचा-ए-जानाँ के सब निशाँ लेकिन हम उस की राहगुज़र भूलने लगे पहुँचे थे हम भी शहर-ए-तिलिस्मात में मगर वो इस्म जिस से खुलना था दर भूलने लगे हम गोशा-गीर भी थे किसी महर की मिसाल ओझल हुए उधर तो उधर भूलने लगे जान-ए-'हसन' अब इस से ज़ियादा मैं क्या कहूँ मर जाऊँ तेरी याद अगर भूलने लगे