तुझ से मिले बग़ैर ये मुझ को पता न था वस्ल-ओ-फ़िराक़ क्या है ये मैं जानता न था आज़ाद हो गया मैं जहाँ के ख़याल से लेकिन तिरा ख़याल मुझे छोड़ता न था मैं उस को देखता था बड़े इश्तियाक़ से लेकिन कभी वो मेरी तरफ़ देखता न था तुम क्या ख़फ़ा हुए कि ख़फ़ा हो गया जहाँ जब तुम ख़फ़ा न थे तो कोई भी ख़फ़ा न था इक तेरी याद ही थी मिरी मंज़िल-ए-तलब वर्ना सफ़र में कोई मिरा रहनुमा न था महरूमियाँ लिखी थीं हमारे नसीब में दिल पर हमारे हर्फ़-ए-मसर्रत लिखा न था 'मासूम' ये भी अपने मुक़द्दर की बात है उन का मिला सुराग़ तो अपना पता न था