तुझ से मिलने के लिए ख़ुद को सफ़र पर रक्खा ज़िंदगी ने मिरा ग़म बार-ए-दिगर पर रक्खा ख़ुद दिए मैं ने जलाए तिरी आमद के लिए और हवाओं को तिरी ख़ैर ख़बर पर रक्खा काफ़ी कुछ हारा हूँ मैं और बड़ी मेहनत से आशियाँ मैं ने तो सरसब्ज़ शजर पर रक्खा इस मसीहा ने मियाँ ज़ख़्म दिए ख़ुद मुझ को और इल्ज़ाम किसी और बशर पर रक्खा मेरी मंज़िल में रुकावट न बनेगा 'हमज़ा' उस ने पत्थर जो मिरी राहगुज़र पर रक्खा