तुझे सुनाऊँ ग़ज़ल या सुनाऊँ अपना ग़म ज़रा इरादा बता तू भी कुछ ऐ मेरे सनम मैं शाहज़ादी हूँ अल्फ़ाज़ के रियासत की ख़ज़ाना शेर-ओ-सुख़न का कभी न होगा कम निभा रहे हैं सभी से ख़ुलूस के रिश्ते इसी से बाक़ी है दुनिया के बाज़ूओं में दम जो हम से रात में तन्हाई हम-कलाम हुई सँवर गया मिरे जज़्बों का आज सारा ख़म मुझे पसंद नहीं बे-हयाई दुनिया की कोई समेट ले आ कर तमीज़ का यूँ भरम बयान कर दिया जज़्बात मैं ने भी 'शीरीं' हुनर ये अपना नहीं है ख़ुदा का ख़ास करम