तुझ से वाबस्ता हूँ नाशाद नहीं हो सकता तेरे होते हुए बर्बाद नहीं हो सकता सुर्ख़-रूई मिरे हिस्सा में जुनूँ से आई अब कोई दूसरा फ़रहाद नहीं हो सकता पर कतरता है न ज़िंदाँ की सज़ा देता है क़ैद में जिस की हूँ सय्याद नहीं हो सकता पिछले अस्बाक़ जो अज़बर थे उन्हें भूल गया अब नया कोई सबक़ याद नहीं हो सकता यही बेहतर है कि बुझ जाए सर-ए-शाम चराग़ दिल-ए-नाशाद अगर शाद नहीं हो सकता ये मकाँ उस का ही है कौन-ओ-मकाँ जिस के हैं क्या ख़राबा कभी आबाद नहीं हो सकता