तुलू-ए-सुब्ह-ए-सफ़र की घड़ी थी याद आया जुदाई रास्ता रोके खड़ी थी याद आया किसी की ख़ंदा-लबी से भी खुल नहीं पाई गिरह तो अब के दिलों में पड़ी थी याद आया ये दिल के ज़ख़्म उसी जंग में अता हुए हैं जो तेरे नाम पे ख़ुद से लड़ी थी याद आया जो मेरा वक़्त मिरे हाथ आ नहीं रहा था मिरी कलाई पे तेरी घड़ी थी याद आया गले मिले थे बिछड़ते समय जब आख़िरी बार वो शाम दोनों पे कितनी कड़ी थी याद आया रगें बदन की यूँही तो नहीं खिंची हुई थीं कोई सलीब सी दिल में गड़ी थी याद आया हुई है सर्फ़ न जाने कहाँ कहाँ ऐ 'नईम' दुरून-ए-चश्म नमी तो बड़ी थी याद आया