तुम आए जब नहीं नाकाम लौट जाने को तो आओ ख़ाक करो दिल के आशियाने को बुझा बुझा सा है क्यूँ आज उदास उदास है दिल है कोई कोह-ए-अलम और टूट जाने को है आरज़ू-ए-दिल-ए-सोगवार लिखता रहूँ तमाम उम्र तिरे इश्क़ के फ़साने को बशर की तंग-दिली इस से बढ़ के क्या होगी क़फ़स समझता रहे अपने आशियाने को ये शेर-ओ-फ़न ये मय-ओ-नग़्मा ये शबाब-ओ-रबाब ये बख़्शिशें हैं ग़म-ए-ज़िंदगी भुलाने को दहन दहन ये उदासी नज़र नज़र ये मलाल इलाही कौन सा ग़म डस गया ज़माने को 'जमाल' और भी सुलगा गया ये आतिश-ए-ग़म उठाया जाम जो दिल की लगी बुझाने को