तुम अपनी ज़बाँ ख़ाली कर के ऐ नुक्ता-वरो पछताओगे मैं ख़ूब समझता हूँ उस को जो बात मुझे समझाओगे इक मैं ही नहीं हूँ तुम जिस को झूटा कह कर बच जाओगे दुनिया तुम्हें क़ातिल कहती है किस को किस को झुटलाओगे या राहत-ए-दिल बन कर आओ या आफ़त-ए-दिल बन कर आओ! पहचान ही लूँगा मैं तुम को जिस भेस में भी तुम आओगे हर बात बिसात-ए-आलम में मानिंद-ए-सदा-ए-गुम्बद है औरों को बुरा कहने वालो तुम ख़ुद भी बुरे कहलाओगे फिर चैन न पाओगे 'अख़्तर' इस दर्द की मारी दुनिया में इस दर से अगर उठ जाओगे दर, दर की ठोकर खाओगे