घर से बुर्क़ा जो उलट वो मह-ए-ताबाँ निकला चौंक उठी ख़ल्क़ कि ईं मेहर-ए-दरख़्शाँ निकला मह को और तुझ को जो मीज़ान-ए-ख़िरद में तोला इस से तो हुस्न में ऐ यार दो चंदाँ निकला रह गए होश-ओ-हवास-ओ-ख़िरद-ओ-ताक़त सब यूँ तिरे कूचे से मैं बे-सर-ओ-सामाँ निकला याँ तलक तीर-ए-मिज़ा खाए हैं मैं ने उस के जा-ए-सब्जा मिरे मरक़द पे नियस्ताँ निकला तेरे बीमार की सुनते हैं ये हालत है कि अब जो गया उस की ख़बर को सो वो गिर्यां निकला वाह क्या तोड़ तिरी तीर-ए-निगह का है कि यार जिस के सीने में लगा पुश्त से पैकाँ निकला सोज़िश-ए-दिल को भी मेरे न बुझाया तुम ने काम इतना भी न ऐ दीदा-ए-गिर्यां निकला फ़त्ह दीजो तू उसे या शह-ए-मर्दां कि तिरा मुल्क-गीरी को जो है अब ये 'सुलैमाँ' निकला