तुम हक़ीक़त नहीं हिकायत हो इक परिस्तान से रिवायत हो मैं तुम्हें ख़ुद भी छू नहीं सकता तुम मिरा पास मेरी हुरमत हो मैं तुम्हें चाहता हूँ सदियों से तुम अज़ल से मुझे वदीअ'त हो मुझ से तुम ख़र्च क्यूँ नहीं होते क्या किसी और की अमानत हो तुम तसलसुल हो मेरी साँसों का तुम मिरे जिस्म की हरारत हो तुम मिरा गोश्वारा-ए-शब-ओ-रोज़ तुम ही मसरूफ़ियत हो फ़ुर्सत हो तुम से निस्बत है मेरा सरमाया तुम मिरा क़द हो मेरी क़ामत हो रहम कुछ तो 'सहर' पे फ़रमाओ तुम पे हर दम ख़ुदा की रहमत हो