तुम ही नहीं हो दुश्मन-ए-जाँ और भी तो हैं दिल में हज़ार ज़ख़्म निहाँ और भी तो हैं हर चंद रस्म-ओ-राह-ए-मोहब्बत भी है ज़रूर 'अह्मर' जहाँ में कार-ए-जहाँ और भी तो हैं किस दिल से दाद दूँ मैं तिरे इल्तिफ़ात की दिल में जराहतों के निशाँ और भी तो हैं इक हम ही क्यों हैं लाएक़-ए-ताज़ीर नासेहा आसूदगान-ए-कू-ए-बुताँ और भी तो हैं इक उन के इल्तिफ़ात पे कुछ मुनहसिर नहीं इस रहगुज़र में संग-ए-गिराँ और भी तो हैं तकमील-ए-शौक़-ए-दीद अगर हो गई तो क्या अंदेशा-हा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ और भी तो हैं 'अह्मर' बस एक तुम ही नहीं सीना-ताब-ए-शौक़ इस अंजुमन में शो'ला-ब-जाँ और भी तो हैं