तुम इतना मुख़्तसर क्यों बोलती हो कि जैसे इक मुजस्सम ख़ामुशी हो सर-ए-महफ़िल निगाहें कह चुकी हैं मिरे कानों में तुम जो कह रही हो मुसलसल हिचकियाँ आने लगी हैं मिरे बारे में कितना सोचती हो मुझे कहती हो मैं सब भूल जाऊँ ख़ुद अब भी मेरी ग़ज़लें पढ़ रही हो उदासी दिल में यूँ उतरी है जैसे कोई जौन एलिया की शायरी हो कई दिन हो गए बेचैन हूँ मैं कई रातों से तुम भी जागती हो