तुझे क्या क्या बताऊँ इन दिनों कैसी गुज़रती है बिछड़ कर तुझ से मुझ पर जो गुज़रनी थी गुज़रती है फ़क़त करवट बदलते बीत जाती हैं कई सदियाँ घड़ी में देखता हूँ रात अभी आधी गुज़रती है न कोई दिन गुज़रता है तिरे बारे में सोचे बिन न कोई शाम तेरी याद से ख़ाली गुज़रती है ये ढलती शाम जैसे तेरी आँखें उठ के झुकती हैं गुज़रती शब तो जैसे ज़ुल्फ़ लहराती गुज़रती है तिरी फ़ुर्क़त में ज़ौक़-ए-शाइ'री ही इक सहारा था वगरना घर के पीछे रेल की पटरी गुज़रती है