तुम जानते हो किस लिए वो मुझ से गया लड़ ऐ हमदम-ए-मन उस के कहीं और लगी लड़ उस ने शजर-ए-दोस्ती अब दिल से उखाड़ा कहने से रक़ीबों के है फ़ित्ने की बंधी जड़ उस बुत को कहाँ पहुँचें बुत आज़र के तराशे हाथ अपने से तय्यार करे जिस को ख़ुदा घड़ दिल-दोज़ निगह यार की होती है मुक़ाबिल बर्छी की अनी सी मिरे सीने में गई गड़ ख़जलत से तू फिर सामने आँखें न करेगा ऐ अब्र मिरे गिर्या की जिस वक़्त लगी झड़ ख़त का ये जवाब आया कि क़ासिद गया जी से सर एक तरफ़ लोटे है और एक तरफ़ धड़ रिंदों ने एवज़ विस्मे के नूरा जो लगाया पाकी की तरह शैख़ की दाढ़ी भी गई झड़ तिरछी निगह उस की कि हुआ कोई न आड़े सीने को सिपर कर के रहे एक हमीं अड़ सहरा-ए-जुनूँ से 'मुहिब' उस ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर फिर पेच में ले आई मुझे पाँव मिरे पड़