तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है हमें किस जुर्म की सज़ा दी है शम-ए-उम्मीद क्यूँ जला दी है इश्क़ तारीकियों का आदी है आप ने ख़ुद मुझे सदा दी है या मिरी क़ुव्वत-ए-इरादी है हम तो मुद्दत के मर गए होते मौत ने ज़िंदगी बढ़ा दी है अब दुआ पर भी ए'तिमाद नहीं ना-मुरादी सी ना-मुरादी है तुझ सा बेदाद-गर कहाँ होगा लब-ए-हर-ज़ख़्म ने दुआ दी है मुख़्तलिफ़ हैं तसव्वुरात-ए-जमाल ये अक़ीदा भी इन्फ़िरादी है देख फ़ितरत की बज़्म-आराई ख़ाक पर चाँदनी बिछा दी है ये जो छोटी सी है कली सर-ए-शाख़ बाग़ की बाद शाहज़ादी है लब-ए-तस्वीर-ए-दोस्त कुछ तो बता किस ने ये ख़ामुशी सिखा दी है ऐ 'सबा' कीमिया-ए-ग़म के लिए ज़िंदगी ख़ाक में मिला दी है