न अपने-आप को इस तरह दर-ब-दर रखते पलट के आते अगर हम भी कोई घर रखते अजीब वहशत-ए-शब थी कि शाम ढलते ही तमाम लोग मुंडेरों पर अपने सर रखते जो अपनी फ़त्ह के नश्शे में चूर थे वो भला सुलगते शहर के मंज़र पे क्या नज़र रखते ये और बात कि सरसब्ज़ थे बहुत लेकिन हम ऐसे पेड़ न बन पाए जो समर रखते जिन्हें हवा की रिफ़ाक़त अज़ीज़ थी 'शहज़ाद' वो अपने पाँव भला क्या ज़मीन पर रखते