तुम्हारे हिज्र का मंज़र तमाम सामने है अब अपनी उम्र-ए-रवाँ की जो शाम सामने है ये इश्क़ एक सफ़र है ख़लाओं का जिस में न मंज़िलें हैं न कोई मक़ाम सामने है मुझे ये लगता है हर बार देख कर दुनिया कि जैसे कोई अधूरा सा काम सामने है सुख़न पे अपने हमें यूँ तो है यक़ीन बहुत पर अब की बार कोई ख़ुश-कलाम सामने है जवाब यूँ तो ज़माने के हर सवाल का है मगर मैं चुप हूँ कि अब तेरा नाम सामने है दिलों के राज़ नहीं खोलते हैं दुनिया पर रहो ख़मोश कि हर ख़ास आम सामने है