तुम्हारे साए से उक्ता गया हूँ मैं अपनी धूप वापस चाहता हूँ कहो कुछ तो ज़बाँ से बात क्या है मैं क्या फिर से अकेला हो गया हूँ मगर ये सब मुझे कहना नहीं था न जाने क्यों मैं ये सब कह रहा हूँ सबब कुछ भी नहीं अफ़्सुर्दगी का मैं बस ख़ुश रहते रहते थक गया हूँ गिला करता नहीं अब मौसमों से मैं इन पेड़ों के जैसा हो गया हूँ