तुम्हारे शहर में पहुँचा था ख़स्ता-जाँ बन के मगर न आया कोई पेश मेहरबाँ बन के न जाने कौन से बे-बर्ग पेड़ का साया हमारे सर पे मुसल्लत है आसमाँ बन के मैं घिरने वाला था काँटों के दरमियाँ लेकिन गुलों ने थाम लिया मुझ को कारवाँ बन के कहाँ छुपाएँगे मुझ को ये नाक़िदान-ए-अदब मैं फैल जाऊँगा घर घर में दास्ताँ बन के बकेंगे शौक़ से बाज़ार-ए-जिन्स में यारो सजे हुए हैं किताबों की जो दुकाँ बन के उन्हीं से पूछिए अब राज़-हा-ए-कौन-ओ-मकाँ जो उड़ रहे हैं सू-ए-आसमाँ धुआँ बन के 'कमाल' रंज-ओ-अलम बे-शुमार हैं लेकिन मैं जी रहा हूँ ज़माने में कामराँ बन के