तुम्हारी बातों पे कुछ ए'तिबार था ही नहीं वो जिस को प्यार कहा तुम ने प्यार था ही नहीं मैं कैसे वैदों हकीमों से मशवरे करती तुम्हारा प्यार नशा था बुख़ार था ही नहीं ये मेरी आँखें तिरे पाओं से लिपटती गईं वगर्ना राहों में कोई भी ख़ार था ही नहीं मैं दर-ब-दर न भटकती तो और क्या करती सिवा-ए-इश्क़ कोई और कार था ही नहीं मैं मात दे के जो दुश्मन को अपने घर आई किसी के हाथ में फूलों का हार था ही नहीं किसी ने हाथ उठाए हुए थे मेरे लिए सो मेरी पुश्त पे दुश्मन का वार था ही नहीं