आँखों में मोहब्बत है तो हाथों में है तलवार खुलता ही नहीं मुझ पे कि कैसे हैं मिरे यार ये बात अलग है कि कोई कहता नहीं है बे-ऐब नहीं वर्ना यहाँ साहब-ए-दस्तार महरूमी-ए-क़िस्मत का ये आलम है कि हम लोग मरने से हैं ख़ाइफ़ कभी जीने से हैं बेज़ार क्या वक़्त था दरिया में रवानी भी ग़ज़ब थी क्या वक़्त है अब मुझ में नहीं क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार 'ज़रयाब' यही बात मुझे मार रही है तू भी न हुआ साथ मिरे चलने को तय्यार