तुम्हारे घर से पस-ए-मर्ग किस के घर जाता बताओ आप से जाता तो मैं किधर जाता नहीं है कोई भी साथी तुम्हारे मुजरिम का पुकार उठते सब आज़ा जो मैं मुकर जाता अजल के भेस में मेरी तलाश कर लेते वो आप ढूँड के ख़ुद लाते में जिधर जाता तकल्लुफ़ात-ए-मोहब्बत ने क़ैद कर रक्खा हर एक सम्त थी दीवार मैं किधर जाता कभी न सामने आता ज़लील कहला कर जो वो बुलाते तो मैं अपने नाम पर जाता भला छुपाए से छुपता लहू शहीदों का ये ख़ून बोल ही उठता जो तू मुकर जाता