तुम्हारे हिज्र की मुद्दत घटा रही हूँ मैं घड़ी में वक़्त को उल्टा घुमा रही हूँ मैं किताब-ए-ज़िंदगी मैं ने अगर पढ़ी ही नहीं क्यों इम्तिहान का परचा बना रही हूँ मैं लगाई मैं ने किनारे पर आँसुओं की सबील नदी की प्यास को पानी पिला रही हूँ मैं यही कि दिल की सुनी है दिमाग़ से पहले सज़ा उसी की मोहब्बत में पा रही हूँ मैं सुना है और ज़ियादा सितम करेगा तू सो अपने ज़ब्त की ताक़त बढ़ा रही हूँ मैं लगा के एक अलग ज़ख़्म उस के पहलू में तुम्हारे ज़ख़्म को नीचा दिखा रही हूँ मैं