तुम्हारे जाते ही हर चश्म-ए-तर को देखते हैं है आँसुओं का समुंदर जिधर को देखते हैं 'फ़राज़' हो गए रुख़्सत जहान-ए-फ़ानी से उदास उदास सुख़न के सफ़र को देखते हैं कहाँ वो इश्क़-ए-जवाँ की ठहर गईं किरनें रुकी रुकी हुई बाद-ए-सहर को देखते हैं सुना है 'फ़ैज़' से आगे निकल गए थे 'फ़राज़' ग़ज़ल के सोज़-ए-दरूँ के असर को देखते हैं सुना है उस ने ग़ज़ल का बदल दिया लहजा सभी 'फ़राज़' के फ़िक्र-ओ-नज़र को देखते हैं सुना है उस की ग़ज़ल आइना थी हस्ती का इसी लिए तो हम उस आईना-गर को देखते हैं सजाया उस ने हुनर से जो अपनी ग़ज़लों को सुना है लोग अब उस के हुनर को देखते हैं कहाँ 'फ़राज़' कहाँ 'आज़म'-ए-शिकस्ता-जाँ ज़रा सा चल के हम उस की डगर को देखते हैं