तुम्हारी बज़्म में जाने ये कैसा आलम है चराग़ जितने ज़ियादा हैं रौशनी कम है रविश रविश पे हैं ख़ूँ-रेज़ियों के हंगामे क़दम क़दम पे यहाँ ज़िंदगी का मातम है चमन में फूल खिले हैं मगर उदास उदास बहार आई है लेकिन ख़िज़ाँ का आलम है वो आँख आँख नहीं जिस में सैल-ए-अश्क न हो वो फूल ख़ार है जो बे-नियाज़-ए-शबनम है ख़िज़ाँ की गोद में लुटती रही हयात-ए-चमन मगर हुनूज़ वही बाग़बाँ का आलम है हैं यूँ तो रौनक़ें महफ़िल में आप की लेकिन बहार कम है ख़ुशी कम है दिलकशी कम है जिधर भी देखिए इंसानियत नहीं मिलती ये किस मक़ाम पे 'अरमान' इब्न-ए-आदम है