तुम्हारी बज़्म में जो लोग जा के बैठे हैं नसीब दाव पे अपना लगा के बैठे हैं ये दो-जहान के अफ़राद वक़्त के हैं ग़ुलाम बड़े-बड़ों को भी हम आज़मा के बैठे हैं मदद के वास्ते आएगा कौन देखना है हम अपना दर्द सभी को सुना के बैठे हैं है मतलबी ये ज़माना किसी का कोई नहीं दिया उमीद का फिर भी जला के बैठे हैं नहीं है कोई भी दीवानगी का ज़िम्मेदार ख़ुदी का हाल ये ख़ुद ही बना के बैठे हैं उन्हें दिखाई नहीं देता मुस्तहिक़ कोई जो काएनात की दौलत दबा के बैठे हैं जो देखता है वो कहता है मुतमइन हम को ये और बात के सब कुछ लुटा के बैठे हैं अजीब हाल है दुनिया का ऐ 'शरर-नक़वी' जिन्हें था झुकना वही सर उठा के बैठे हैं