तुम्हारी तो बस अंगड़ाई हुई थी हमारी जाँ पे बन आई हुई थी नज़र के वार से बचना था मुश्किल मुसीबत घेर कर लाई हुई थी ग़ज़ल पर मैं ग़ज़ल कहने लगा था तबीअत मौज में आई हुई थी वो ख़ुद मिलने चला आया था जिस ने न मिलने की क़सम खाई हुई थी बिछड़ कर किस तरह मिलना है हम ने उसे ये बात समझाई हुई थी यूँही इक रोज़ वो बाज़ार आया फिर उस के बा'द महँगाई हुई थी