तुम्हारी याद का इक दायरा बनाती हूँ फिर इस में रहने की कोई जगह बनाती हूँ वो अपने गिर्द उठाता है रोज़ दीवारें मैं उस की सम्त नया रास्ता बनाती हूँ ज़माना बढ़ के वही पेड़ काट देता है मैं जिस की शाख़ पे इक घोंसला बनाती हूँ वो घोल जाता है नफ़रत की तल्ख़ियाँ आ कर मैं चाहतों का नया ज़ाइक़ा बनाती हूँ ख़्याल-ओ-हर्फ़ तग़ज़्ज़ुल में ढाल कर 'बिल्क़ीस' मैं अपने दर्द सभी ग़ज़लिया बनाती हूँ