कुछ नहीं दुनिया बदल जाने की ग़म-ख़्वानी मुझे हाँ मगर ख़ुद के तग़य्युर पे है हैरानी मुझे दश्त से लौटा तो मैं हूँ इक बगूले का ख़मीर देखती है किस नज़र से घर की वीरानी मुझे इक ज़माने से सू-ए-बाज़ार में निकला नहीं दर्स देती है बहुत यूसुफ़ की अर्ज़ानी मुझे सुन लिए बिखरे हुए ग़म मैं ने रातों के तमाम हाए ऐ दुनिया अभी तक तू नहीं पहचानी मुझे अहल-ए-'अंजुम' एक दिन वो भी ज़माना आएगा रास आएगी ज़मीन-ए-फ़न की सुल्तानी मुझे