तुम्हारी याद का मरहम बनाम-ए-दिल कर दूँ तमाम हिज्र के ज़ख़्मों को मुंदमिल कर दूँ बहुत ज़रूरी है सहरा में इश्क़ ज़िंदा रहे सो इस को क्यों न अता अपने आब-ओ-गिल कर दूँ अभी तो दर्द मिरे दिल में आरज़ी है मगर सिफ़ारिश आप जो फ़रमाएँ मुस्तक़िल कर दूँ जो दाग़-ए-इश्क़ चमक उठे मेरे सीने में तमाम माह-ए-दो-हफ़्ता को मैं ख़जिल कर दूँ उतर गई हैं तिरी सब उदासियाँ मुझ में सो अपनी सारी ख़ुशी तुझ को मुंतक़िल कर दूँ हुरूफ़-ए-शौक़ में लाख इंतिशार हो 'ख़ालिद' ख़याल हुस्न-ए-सरापा से मैं सजिल कर दूँ