तुम को वापस बुलाती पुकारों के दुख तुम नहीं जानते पाँव पड़ते हुए चुप के मारों के दुख तुम नहीं जानते जब ज़रूरत की मिक़दार बढ़ती है सब डूबने लगते हैं हम नशेबों के आबाद-कारों के दुख तुम नहीं जानते एक ऊँचाई पर ख़ुद को तस्लीम करती मसर्रत के बाद नीचे गिरते हुए आबशारों के दुख तुम नहीं जानते एक अर्सा यहाँ ज़िंदगी अपनी तौलीद करती रही इन खंडर ओढ़ते सब्ज़ा ज़ारों के दुख तुम नहीं जानते कितनी दुनियाएँ तस्ख़ीर होने की ख़्वाहिश में बेताब हैं इन पहाड़ों में मौजूद ग़ारों के दुख तुम नहीं जानते हम समाजी ग़ुलामों पे अपने लिए सोचना बंद है एक सूरज के होते सितारों के दुख तुम नहीं जानते तुम नहीं जानते पस्त ज़ेहनों के माबैन फ़िक्र-ए-रसा खाइयों में घिरे कोहसारों के दुख तुम नहीं जानते मोनालीज़ा की मुस्कान उस के बदन का ख़ुलासा नहीं देखने वालो इन शाहकारों के दुख तुम नहीं जानते मैं ने 'ग़ालिब' को दिल्ली का पुर्सा दिया 'फ़ैज़' गोया हुए मेरे बच्चे अभी मेरे यारों के दुख तुम नहीं जानते बानू-ए-सुब्ह जब रौशनी की रसद रोकती है 'मुनीर' वक़्त को पेश आते ख़सारों के दुख तुम नहीं जानते