ये ज़मीं जो सक़ाफ़त में ज़रख़ेज़ थी इस को क्या हो गया इस की शरह-ए-नुमू तो बहुत तेज़ थी इस को क्या हो गया अब सुराही के दामन में कुछ भी नहीं ख़ामुशी के सिवा मेरी तारीख़ लोगों से लबरेज़ थी इस को क्या हो गया तेरी दुनिया को नज़दीक से देख कर ख़ुद पे अफ़्सोस है इस की तस्वीर कितनी दिल-आवेज़ थी इस को क्या हो गया तुम ने बारूद की थैलियों में जना था नई नस्ल को आज कहते हो ये अम्न-अंगेज़ थी इस को क्या हो गया उस की ख़ाक-ए-शिफ़ा से जिला पा गए कितने रूमी यहाँ ये ज़मीं अपनी शौकत में तबरेज़ थी इस को क्या हो गया तुझ बदन के मनाज़िर की नज़्ज़ारगी है ख़िज़ाँ-याफ़ता ये सियाहत बड़ी लुत्फ़-अंगेज़ थी इस को क्या हो गया पक्के रंगों में रंगी हुई औरतें कितनी नायाब हैं ये मोहब्बत जो मश्शाक़ रंगरेज़ थी इस को क्या हो गया ज़िंदगी अपनी तर्सील का मरहला तय नहीं कर सकी वर्ना रफ़्तार में मौत से तेज़ थी इस को क्या हो गया पेड़ की छाल भी काटने का जतन कर नहीं पाएगी मेरी तलवार फ़ितरत में ख़ूँ-रेज़ थी इस को क्या हो गया शख़्सियत के तनासुब में बेचारगी बढ़ रही है 'मुनीर' ये कहानी बहुत ही जुनूँ-ख़ेज़ थी इस को क्या हो गया