टूटे हुए पेड़ गिन रहा हूँ मैं अपने परों को देखता हूँ लब-बस्ता हूँ फिर भी बोलता हूँ यार ख़ुद से नबर्द-आज़मा हूँ बस्ती कोई रह न जाए बाक़ी दर दर पे सदा लगा चुका हूँ होंटों पे सुकूत ख़ामुशी है लम्हों के हिसार में घिरा हूँ रस्ते हैं तमाम अटे अटे से मैं कैसे कहूँ गुरेज़-पा हूँ ऐ नहर-ए-फ़ुरात दे गवाही प्यासों का ख़िराज माँगता हूँ शायद कोई शहसवार निकले सहरा पे कमंद डालता हूँ ख़ुद पर यक़ीन उठ चला है अब रात ढली तो सो गया हूँ