टूटी हुई दीवार की तक़दीर बना हूँ मैं कैसा फ़साना हूँ कहाँ लिक्खा हुआ हूँ कोई भी मिरे कर्ब से आगाह नहीं है मैं शाख़ से गिरते हुए पत्ते की सदा हूँ मुट्ठी में लिए माज़ी ओ इमरोज़ की किरनें मैं कब से नए दौर की चौखट पे खड़ा हूँ इस शहर-ए-पुर-आशोब के हंगामा ओ शर में ज़ैतून की डाली हूँ कहीं शाख़-ए-हिना हूँ गवय्या नहीं लफ़्ज़ों के मआनी से शनासा इदराक की सरहद पे मैं चुप-चाप खड़ा हूँ सिमटा तो बना फूलों की ख़ुश-रंग क़बाएँ बिखरा हूँ तो ख़ुश्बू की तरह फैल गया हूँ मैं 'राज़' चमकता हुआ झूमर था किसी का अब शब के समुंदर में कहीं डूब गया हूँ