टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में मैं चढ़ी रात का दरिया हूँ उतर जा मुझ में मैं तिरी याद के सावन को कहाँ बरसाऊँ अब की रुत में कोई बादल भी न गरजा मुझ में जाते क़दमों की कोई चाप ही शायद सुन लूँ डूबते लम्हों की बारात उभर जा मुझ में जाने मैं कौन से पतझड़ में हुआ था बर्बाद गिरते पत्तों की इक आवाज़ है हर जा मुझ में कोई महकार है ख़ुश्बू की न रंगों की लकीर एक सहरा हूँ कहीं से भी गुज़र जा मुझ में ख़त्म होने दे मिरे साथ ही अपना भी वजूद तू भी इक नक़्श ख़राबे का है मर जा मुझ में कोई हर-गाम 'मुसव्विर' ये सदा देता है मैं तिरी आख़िरी मंज़िल हूँ ठहर जा मुझ में