यूँ तो सौ तरह की मुश्किल सुख़नी आए हमें पर वो इक बात जो कुहनी न अभी आए हमें कैसे तोड़ें उसे जो टूट के मिलती हो गले लाख चाहा कि रिवायत-शिकनी आए हमें हर क़दम इस मुतबादिल से भरी दुनिया में रास आए तो बस इक तेरी कमी आए हमें प्यास बुझ जाए ज़मीं सब्ज़ हो मंज़र धुल जाए काम क्या क्या न इन आँखों की तिरी आए हमें देव-ए-अल्फ़ाज़ के चंगुल से छुड़ाने के लिए आख़िर-ए-शब कोई मअना की परी आए हमें फिर हमें क़त्ल करे शौक़ से बन पाए अगर इक ग़ज़ल भर तो किसी शब कोई जी आए हमें 'साज़' ये शहर-नवर्दी में बिखरता हुआ दिन सिमटे इक मोड़ तो याद उस की गली आए हमें