उभर आया रुख़ पर हया का नगीना जबीं पर न देखा था ऐसा पसीना चली आ रही है हसीनों की टोली ज़मीं पर है क़ौस-ए-क़ुज़ह का क़रीना मिरे हाथ आ ही चला था किनारा लगा डूबने मेरे दिल का सफ़ीना कसक सोई रहती है बरसों कभी तो जो जागे तो जागे महीना महीना भला कौन जाने वो आएँ न आएँ मिरे पास रहने ही दो जाम-ओ-मीना कभी तुम ने देखी हैं पुर-ख़ार राहें जो कहते हो उल्फ़त को फूलों का ज़ीना उड़ा ली जो चोरी से गालों की चुटकी तो बोले 'कँवल' भी है कितना कमीना