उभर के आया था शब होते ही हुनर मेरा फिर इंतिज़ार ही करती रही सहर मेरा मैं रोज़ तपते हुए दश्त से गुज़रता हूँ मैं रोज़ कहता हूँ आएगा हम-सफ़र मेरा ज़मीं पे होते हुए भी मैं आसमान पे था जब उस की गोद में रक्खा हुआ था सर मेरा कभी ज़बाँ से वो इज़हार तो न कर पाया ख़याल दिल में बसा कर जिए मगर मेरा तुम्हारे बाद भी तोड़े बहुत से दिल मैं ने तुम्हारे बाद भी जारी रहा सफ़र मेरा बड़े सुकून से रहती है मुझ में ख़ामोशी भले ही चीख़ता रहता हो सारा घर मेरा