उड़े हैं कूचा-ए-दिलबर में जान से गुज़रे ये जान क्या है कि दोनों जहान से गुज़रे अगर वो होश-रुबा सर-बसर जो हो महकूम तो है क़सम कि हर इक आन मान से गुज़रे बसंती पोश करूँ हाए रे मैं आँखों से तू ज़ेर-ए-चश्म अगर ख़ूँ-फ़िशान से गुज़रे क़सम है तुज को छिड़कवा के जम ही जावेगा जो रंग क़तरा-ए-आब-ए-चकान से गुज़रे नहीं ख़बर तुझे नासेह कि हम गए काँ तक तिरे तो अक़्ल-ओ-क़यास-ओ-गुमान से गुज़रे मैं इक कशिश में पहुँच जाऊँ यार तक अपने जो तीर छूट के जैसा कमान से गुज़रे जो छर-छड़ा के दिल-ला-मकाँ करे परवाज़ तवक़्क़ो है कि नवों आसमान से गुज़रे ख़याल-ए-यार का तौसन है ख़ुश-ख़िराम मिरा ख़ुदा कभी न करे ज़ेर-ए-रान से गुज़रे अगर नसीब ही हो जाए फ़क़्र का मुझे फ़ख़्र तो ज़िंदगी मिरी क्या इज़्ज़-ओ-शान से गुज़रे सुख़न हैं हल्क़ा-ए-मिसरा में ज्यूँ दुर-ए-शहवार है ये रिजा कि क़दर-दाँ के कान से गुज़रे ऐ 'इम्तियाज़' तू हो ज़ाएर-ए-मदीना हरम तो क्या सुरूर-ओ-ख़ुशी आन आन से गुज़रे