उधड़े हुए मल्बूस का परचम सा गया है बाज़ार से फिर आज कोई हम सा गया है झोंका था मगर छेड़ के गुज़रा है कुछ ऐसे जैसे तिरे पैकर का कोई ख़म सा गया है छोड़ूँ कि मिटा डालूँ इसी सोच में गुम हूँ आईने पे इक क़तरा-ए-ख़ूँ जम सा गया है गालों पे शफ़क़ फूलती देखी नहीं कब से लगता है कि जिस्मों में लहू थम सा गया है आँखों की तरह दिल भी बराबर रहे कड़वे इन तंग मकानों में धुआँ जम सा गया है 'सज्जाद' वही आज का शाइ'र है जो पल में बिजली की तरह कौंद के शबनम सा गया है