उजड़े दिल-ओ-दिमाग़ को आबाद कर सकूँ ऐसा तो कुछ किया नहीं जो याद कर सकूँ आख़िर को आदमी हूँ कभी चाहता है दिल ख़ुद को तिरे ख़याल से आज़ाद कर सकूँ खोले ज़बान वो जो उसे जानता न हो मेरा तो मुँह नहीं है कि फ़रियाद कर सकूँ इक उम्र कट गई मगर अब तक है जुस्तुजू दिन काटने का फ़न कोई ईजाद कर सकूँ अपने ही ग़म ग़लत हों सुख़न से बहुत है ये ऐसा हुनर कहाँ कि इसे शाद कर सकूँ बर्बाद हो के लौटने वाला हूँ मैं 'सुहैल' आया था यूँ कि दहर को आबाद कर सकूँ