उजला तिरा बर्तन है और साफ़ तिरा पानी इक उम्र का प्यासा हूँ मुझ को भी पिला पानी है इक ख़त-ए-नादीदा दरिया-ए-मोहब्बत में होता है जहाँ आ कर पानी से जुदा पानी दोनों ही तो सच्चे थे इल्ज़ाम किसे देते कानों ने कहा सहरा आँखों ने सुना पानी क्या क्या न मिली मिट्टी क्या क्या न धुआँ फैला काला न हुआ सब्ज़ा मैला न हुआ पानी जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी फिर देख कि ये दुनिया कैसी नज़र आती है 'मुश्ताक़' मय-ए-ग़म में थोड़ा सा मिला पानी