उजाले मिलते भला कैसे रात काटने से कि तीरगी नहीं घटती चराग़ बाँटने से फ़ज़ा में उड़ते परिंदे भी सम्त भूल गए हवा में गिर्हें पड़ीं ऐसी पेड़ काटने से मैं जानता हूँ बयाबाँ के भेद-भाव मगर ख़िज़ाँ की धूप निखरती है फूल चाटने से ये सोच कर मैं कभी दिल को रद्द नहीं करता बिगड़ ही जाए न ये बच्चा रोज़ डाँटने से जो पहले थी वही नफ़रत है उस के दिल में हुनूज़ कि ये ख़लीज हुई कम न मेरे पाटने से ये अपने अपने मुक़द्दर की बात है 'एहसान' सभी को फूल नहीं मिलते शाख़ छाटने से