उजड़े मकाँ का खा गई जलता हुआ दिया मिलना पड़ेगा तुझ से मुझे सर-फिरी हवा अपने तअ'ल्लुक़ात तो कब के हुए तमाम कहने को रह गया है बताओ अब और क्या तो चाहता यही था कि मिलने न पाएँ हम आख़िर को हो गई है तिरी सुर्ख़-रू दुआ फिर क्यों न आज से ही रहें दूर दूर हम आख़िर कभी तो होना पड़ेगा हमें जुदा महफ़िल में दूर इस लिए बैठी हूँ आप से मेरा वजूद आप को लगता है कुछ बुरा