उखड़ी न एक शाख़ भी नख़्ल-ए-जदीद की हर मोहतसिब ने बेख़-कुनी तो शदीद की अब तो निगाह-ए-शौक़ का ये हक़ भी छिन गया टीवी ही इक जगह थी हसीनों की दीद की गुज़री सवाल-ए-वस्ल के चक्कर में सारी उम्र फ़ुर्सत न मिल सकी उसे गुफ़्त-ओ-शुनीद की बख़्शा है पीर-जी ने अक़ीदत का ये सिला लड़की भगा के ले गए अपने मुरीद की